राहुल त्रिपाठी
बीजेपी का विजय रथ नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 से ऐसा चला जिसने अब तक सम्पूर्ण भारत के लगभग दो तिहाई हिस्से को भगवामय कर दिया। अभी हाल ही में त्रिपुरा में सम्पन्न हुए चुनाव में बीजेपी ने सफलता के नए आयाम स्थापित किए और दो दशकों से चली आ रही कम्युनिष्ट के गढ़ को न केवल ढ़हाया बल्कि राज्य के राजनीतिक इतिहास में जीरो से शिखर तक का मुकाम हासिल किया। तब ऐसा लग रहा था कि भाजपा रूपी राजनीतिक आंधी भारत की सम्पूर्ण राजनीतिक पार्टियों को उखाड़ फेंकेगी और भारत के बचे हुए सभी राज्यों में अपने विजय का झंडा गाड़ने में बहुत जल्द कामयाब हो जायेगी।
लेकिन तभी बीजेपी को एक के बाद एक झटके लगे, जिसके बाद उसका विजयी रथ रुका हुआ प्रतीत हुआ। हाल ही में फूलपुर तथा गोरखपुर संसदीय उपचुनाव में बीजेपी को अपनी सीटों को खोना पड़ा। साथ ही सत्ता में बीजेपी की प्रमुख सहयोगी पार्टी तेलगूदेशम ने अपने समर्थन वारसी की घोषणा कर दिया। चार साल तक सत्ता की भागीदीर रही TDP ने अचानक से सत्तारूढ़ गटबंधन से न केवल अलग होने की घोषणा की, बल्कि सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी ले आयी।
हालांकि TDP के अलग होने से गटबंधन सरकार को खतरा नहीं है। बीजेपी अकेले ही 273 सीटों के साथ बहुमत में है। यदि सभी घटक दल सरकार से अलग हो जाते हैं तो भी सरकार को कोई खतरा नहीं है। TDP के इस समर्थन वापसी के पीछे की वाजिब वजहें क्या है? यह विचार का प्रश्न है। हांलाकि TDP के नेता चन्द्रबाबू नायडू ने कहा है कि यह राज्य के वैध अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए धर्म युद्ध लड़ रहे हैं।
विशेष राज्य के दर्जे की मांग को लेकर चन्द्र बाबू नायडू ने अचानक से कड़ा रुख अपनाते हुए NDA गठबंधन से अलग होने का फैसला किया। वहीं वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि केन्द्र सरकार आन्ध्रप्रदेश को विशेष राज्य के दर्जे के बराबर विशेष पैकेज देने को लेकर वचनबद्ध है और इसपर बात करने के लिए केन्द्र ने राज्य सरकार का लम्बा इन्तजार भी किया है। लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया।
इससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि समर्थन वापसी के पीछे का मन्तव्य कुछ और ही है। पहले भी जब अटल बिहारी के नेतृत्व में केन्द्र में NDA की सरकार थी तब भी TDP ने गुजरात दंगों का हवाला देते हुए सरकार से नाता तोड़ लिया था। साथ ही प्रश्न यह भी उठता है कि विशेष दर्जे को लेकर चन्द्र बाबू नायडू चार साल तक खामोश क्यों रहे, अब जबकि अगले साल आन्ध्र प्रदेश में चुनाव होने हैं तो यह मुद्दा इस शिद्दत के साथ उठाया जा रहा है।
वास्तव में अभी तक के कार्यकाल में राज्य सरकार ने जनता के मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। अब चुनाव सामने है ऐसी स्थित में जनता के पास जाने के लिए उनको मुद्दा चाहिए। और वह एक बार फिर विशेष राज्य के दर्जे के नाम पर वह चुनाव में जाना चाहते हैं। घरेलू मुद्दों पर राज्य सरकार को प्रमुख विपक्षी दल वाईएसआर कांग्रेस से कड़ी प्रतिद्वन्दिता मिल रही है। प्रजा संकल्प यात्रा तथा कई मुद्दों में यह राज्य सरकार को घेर कर कठिनाई खड़ी कर रही है। ऐसे में चन्द्र बाबू नायडू विशेष राज्य के दर्जे का प्रश्न बनाकर राज्य की अस्मिता की लड़ाई में हीरो बनना चाहते हैं।
बीजेपी को शायद ऐसी परिस्थित का आभाष हो गया था इसीलिए वह आन्ध्र प्रदेश में अपनी पार्टी को मजबूत करती रही। साथ ही इसके लिए उन्होंने वाईएसआर कांग्रेस के नेता वाईएस जगमोहन रेड्डी से सम्बन्ध को साधने का प्रयास किया। शायद इसमें वह सफल भी हों। यह बातें इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जगमोहन रेड्डी का बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से करीबी सम्बंध रहे हैं।
इसके अतिरिक्त स्वर्गीय रामाराव की पुत्री डी पुरंदेश्वरी को बीजेपी बतौर ट्रंप कार्ड इस्तेमाल कर TDP को विरासत के जंग में उलझाना चाहती है। तथा राज्य सरकार के भ्रष्टाचार को एक प्रमुख मुद्दा बनाकर राज्य के चुनाव को चन्द्र बाबू नायडू के लिए और मुश्किल चुनौती पेश करेगी। आन्ध्र प्रदेश के बीजेपी नेता टी वी नरसिंघा राव ने कहा है कि आन्ध्र प्रदेश दूसरा त्रिपुरा होगा।
चन्द्र बाबू नायडू यह जानते हुए भी अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में पेश किया कि बीजेपी के पास अकेले ही पूर्ण बहुमत है। वह इसके जरिये सम्पूर्ण विपक्ष को साथ लाकर बीजेपी के जनाधार को कमजोर करना चाहते हैं। साथ ही बीजेपी घटक दलों को अलग करके एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर सरकार को अस्थिर कर 2019 के लिए महौल बनाने का काम कर रहे हैं। हाल ही में हुए उपचुनाव के नतीजे को इस्तेमाल कर बीजेपी की घटती लोक प्रियता के रूप में प्रचारित कर विपक्ष को एक जुट किया जा रहा है।
वैसे तो अभी बीजेपी नेतृत्व की केन्द्रीय सरकार पर प्रत्यक्ष को खतरा नहीं है लेकिन जिस प्रकार उसके सहयोगी शिव सेना खुलकर सरकार की खिलाफत करती है। उससे आसार अच्छे नहीं दिखाई देते। लोकजन शक्ति पार्टी भी हालिया चुनाव परिणामों को लेकर एक मीटिंग करना चाहती है। साथ ही पीडीपी से भी सरकार का सम्बंध ऊपर नीचे होता रहता है। कुल मिलाकर केन्द्र सरकार के समक्ष अपनी सहयोगी पार्टियों को इकट्ठा रखने की बड़ी चुनौती है।